Wednesday 5 August 2015

कैसे एक कॉलेज का शिक्षक बना सदी का खलनायक।

Kadar khan..
          सहनायक,संवाद_लेखक,खलनायक,हास्य अभिनेता और भी कइ प्रतिभाओ क धनि... कादर खान जी के अभिनय की एक विशेषता यह है कि वह किसी भी तरह की भूमिका के लिये उपयुक्त हैं। फिल्म कुली में एक 'क्रूर खलनायक' की भूमिका हो या फिर जैसी करनी वैसी भरनी, फिल्म में भावपूर्ण अभिनय या फिर 'बाप नंबरी बेटा दस नंबरी' फ़िल्मं में हास्य अभिनय, इन सभी चरित्रों में उनका कोई जवाब नहीं है। कादर खान का जन्म 22 अक्तूबर 1937 में बलूचिस्तान (पाकिस्तान)में हुआ। कादर खान ने अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई उस्मानिया विश्वविद्यालय से पूरी की। इसके बाद उन्होंने अरबी भाषा के प्रशिक्षण के लिए एक संस्थान की स्थापना करने का निर्णय लिया।
        कादर खान ने अपने करियर की शुरुआत बतौर प्रोफेसर मुंबई के एक इंजीनियरिंग कॉलेज से की। इस दौरान कादर खान कॉलेज में आयोजित नाटकों में हिस्सा लेने लगे। एक बार कॉलेज में हो रहे वार्षिक समारोह में कादर खान को अभिनय करने का मौका मिला। इस समारोह में अभिनेता दिलीप कुमार, कादर खान के अभिनय से प्रभावित हुए और उन्हें अपनी फिल्म 'सगीना' में काम करने का प्रस्ताव दे दिया। वर्ष 1974 में रिलीज फिल्म 'सगीना' के बाद कादर खान फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। इस दौरान उनकी दिल दीवाना, बेनाम, उमर कैद, अनाड़ी और बैराग जैसी फिल्में रिलीज हुईं, लेकिन इन फिल्मों से उन्हें कुछ खास फायदा नहीं पहुंचा।
          1977 में कादर खान की 'खून पसीना' और 'परवरिश' जैसी फिल्में आईं। इन फिल्मों के जरिये वह कुछ हद तक अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए। खून पसीना और परवरिश की सफलता के बाद कादर खान को कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए। इन फिल्मों में मुकद्दर का सिकंदर, मिस्टर नटवरलाल, सुहाग, दो और दो पांच, कुर्बानी, याराना, बुलंदी और नसीब जैसी बड़े बजट की फिल्में शामिल थीं। इन फिल्मों की सफलता के बाद कादर खान ने सफलता की नई बुलंदियों को छुआ और बतौर 'खलनायक' फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। वर्ष 1983 में रिलीज 'कुली' कादर खान के करियर की सुपरहिट फिल्मों में शुमार की जाती है। मनमोहन देसाई के बैनर तले बनी इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इस फिल्म के साथ कादर खान फिल्म इंडस्ट्री के चोटी के खलनायकों की फेहरिस्त में शामिल हो गए। 1990 में रिलीज 'बाप नंबरी बेटा दस नंबरी' कादर खान के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है। इस फिल्म में कादर खान और शक्ति कपूर ने बाप और बेटे की भूमिका निभाई जो ठग बनकर दूसरों को धोखा दिया करते हैं। फिल्म में कादर खान और शक्ति कपूर ने अपने कारनामों के जरिये दर्शकों को हंसाते-हंसाते लोटपोट कर दिया। फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिए कादर खान _'फिल्मफेयर पुरस्कार' से सम्मानित भी किए गए। नब्बे के दशक में कादर खान ने अपने अभिनय को एकरुपता से बचाने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में स्थापित करने के लिए अपनी भूमिकाओं में परिवर्तन भी किया। इस क्रम में वर्ष 1992 में प्रदर्शित फिल्म 'अंगार' में उन्होंने अंडरवर्ल्ड डॉन जहांगीर खान की भूमिका को रूपहले पर्दे पर साकार किया।इसके बाद कादर खान ने हास्य अभिनेता के तौर पर ज्यादा काम काम करना शुरू किया। इस क्रम में वर्ष 1998 में रिलीज फिल्म 'दुल्हे राजा' में अभिनेता गोविंदा के साथ उनकी भूमिका दर्शकों के बीच काफी पसंद की गई। कादर खान के सिने करियर में उनकी जोड़ी अभिनेता शक्ति कपूर के साथ काफी पसंद की गई। इन दोनों अभिनेताओं तकरीबन 100 फिल्मों में एक साथ काम किया है। कादर खान ने कई फिल्मों में संवाद लेखक के तौर पर भी काम किया है।
  
**एक अधूरी ख्वाहिश:                                                    
             कादर ख़ान की अमिताभ बच्चन को लेकर फ़िल्म बनाने की तमन्ना अब तक पूरी नहीं हो सकी। अभिनेता कादर ख़ान और अमिताभ बच्चन ने एक साथ कई फ़िल्में कीं।इसके अलावा कादर ख़ान ने अमर अकबर एंथनी, सत्ते पे सत्ता और शराबी जैसी फ़िल्मों के संवाद भी लिखे लेकिन कादर ख़ान अमिताभ बच्चन को लेकर खुद एक फ़िल्म बनाना चाहते थे और उनकी ये तमन्ना अब तक पूरी नहीं हो सकी।वह अमिताभ बच्चन, जया प्रदा और अमरीश पुरी को लेकर फ़िल्म ‘जाहिल’ बनाना चाहते थे। उसका निर्देशन भी वह खुद करना चाहत थे लेकिन खुदा को शायद कुछ और ही मंजूर था। इसके फौरन बाद फ़िल्म ‘कुली’ की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को जबरदस्त चोट लग गई और फिर वो महीनों अस्पताल में भर्ती रहे।
             शायद यह बात कादर साहब खुद मानते है की बदलते वक्त के साथ अब उनका बदलना मुश्किल हो गया है।उनकी ज़िन्दगी की रफ़्तार अब उतनी तेज़ नही की वह आज के दौर के हिसाब से भाग सके।मगर इस उम्र में जब लोग दौलत और शौरत का लुफ्त उठाने के बाद रिटायरमेंट की ज़िन्दगी जीने को अग्रसर होते है तब भी अपने कादर भाई अपने बेटों के थिएटर ग्रुप और उनके प्ले में व्यस्त हैं। उनके बेटे सरफराज खान और शाहनवाज खान, अपने पिता के लिखे दो नाटकों का मंचन कर रहे हैं। इन नाटकों के नाम है मेहरबां कैसे-कैसे और लोकल ट्रेन। ये दोनों ही नाटक राजनीतिक व्यंग्य हैं।लम्बे समय से कादर खान की तबियत नाज़ुक बनी है और वह अपने बच्चों के साथ दुबई में रहते है.हैरानी तो तब हुई जब मैंने देखा की किस तरह google की इमेजेज में कदर खान जी की फ्यूनरल(funeral) images का एक पूरा अलग ही सेगमेंट बनाया हुआ है।सोच कर ही बहुत हैरानी होती  है की इतने दमदार अभिनेता के साथ इतना गन्दा मज़ाक किया जा रहा है।

       इस सब के बाद उनकी फ़िल्म बाप नंबरी बेटा दस नंबरी में कहा गया संवाद याद आता है कि_''दुःख जब हमारी कहानी सुनता है तो खुद ही दुःख को दुःख होता है।।''

#bs_yuh_hi
       
       

Wednesday 8 April 2015

पहिया

इंसान द्वारा आविष्कार किया गया सबसे क्रांतिकारी वस्तु मे से एक है पहिया । पहिया ने न केवल विकास की गति को क्रांतिकारी ढंग से गतिशीलता प्रदान की है , बल्कि साथ साथ एक लंबे मिल मिलों के सफर को कुछ ही समय मे पूरा करने का साधन बना । जरा सोच के देखिये जनाब ! अगर पहिया ना होता तो साइकिल , ट्रेन , मोटरकार , हवाई जहाज का सपना पूरा भी हो पाता ? जवाब मिलेगा बिलकुल नहीं । शुरुआत मे पहिये का स्वरूप लोहे का एक गोल आकार का ढांचा , जो की सतह पर आसानी से चल सके । जिसे खींच कर या धकेल कर आगे बढ़ाया जा सके । समय के साथ साअथ पहिये के प्रारूप मे कई क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिले ,और आज यह रबर, कपड़ा और विभिन्न रासायनिक तत्वों से मिलकर बनता है । वर्ष 1744 मे चार्ल्स गुडइयर द्वारा रबर के आधुनिक टायरों के बनाने की राह प्रचलित हुई ।

        ये तो बात हुई पहिये के आविस्कार की , मगर यह तो सिक्के का एक पहलू है । अभी तो महत्वपूर्ण दूसरा पहलू तो दिखाना बाकी है, पहिया हमारी जिंदगी की दशाओं का सूचक है ,जो जिंदगी के सफर का महत्वपूर्ण अंग होने के साथ साथ हमे अपनी वास्तविकता और कर्मों की बानगी देता है । कुछ ऐसा ही है पहिया आगे आप जरूर महसूस करेंगे मेरा विश्वाश है ।
         जरा सोचिए एक नया पहिया जो की बिलकुल दिखने मे नया
, चमकदार और बढ़िया नजर आता है जो की पूरी स्फूर्ति के साथ कार्यों को करता है । बिलकुल उसी तरह होता है समय का चक्र भी । बचपन से लेकर जवानी तक हम उमंगों और ऊर्जा से भरे होते हैं , बचपन मे कोई रोक टॉक नहीं आजाद पंक्षी की तरह खुले आसमान मे सैर करना , सारा जग जीतने का प्रयास करना ,घर , गाँव की गलियों मे ही दुनिया की सैर का आभास होना । बचपन होता है नादान पर सपने नादान नहीं होते , एक छलांग लगाकर सीधे आकाश को छूने की कोशिश करना ये बचपन भी ऐसा ही होता है ।
          समय का पहिया बचपन से होते हुए आगे बढ़ता है जहां जिंदगी के सभी पक्षों को बयान करता हुआ बढ़ता ही जाता है । पहिया चलते चलते ही घिसता है और ज्यादा चलने पर थोड़ा पुराना और चोटिल भी हो जाता है शायद जैसे की जवानी । इस अवस्था मे बड़े सपनों का पनपना लाजिमी होता है
, और अपनी उपलब्धियों , इच्छाओं को हासिल करने की पुर ज़ोर कोशिश । ज़िम्मेदारी भी बढ़ जाती है जिम्मेदारियों के साथ साथ घर परिवार को व्यवस्थित करने की भी ज़िम्मेदारी आ जाती है । । इन सबके बीच एक नकारात्मक दौर भी आता है जहां आप कई बार या तो हार मान लेते हैं या उससे संघर्ष करते हैं पर जीत तो संघर्ष करने वालों को ही मिलती है । पहिया भी कुछ ऐसा ही होता है घिसने के बावजूद अपना संघर्ष नहीं छोडता है । सफर है तो संघर्ष का होना लाजिमी है , मगर सफर रुकता कहाँ है । और जब ये रफ्तार पकड़ लेता है तो जिंदगी खुद ब खुद आसान हो जाती है ।
         जिंदगी का सबसे अनुभवी दौर भूढ़ापा होता है जहां हम एक ऐसे मोड पर होते हैं जहां छीजे बादल रही होती हैं । और हम अपने दौर को याद करके उनकी तुलना करते हैं । यही अनुभव युवा पीढ़ी को साहस प्रदान करता है । यही है जीवन और इसकी सच्चाई
, जिससे परिचित होना ही पड़ता है । जिंदगी का पहिया हमे सभी अनुभवों को जीने का साहस देता है । 

Sunday 8 March 2015

एक साक्षात्कार अविनाश के साथ ................







सवाल 1: तो अविनाश जी पहले तो आप अपने बारे मे कुछ बताइये?

अविनाश : मैं इस समय लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग मे छात्र हूँ, और साथ साथ लखनऊ बार एसोसिएसन से भी जुड़ा हूँ ।

सवाल 2: वकालत के साथ साथ पत्रकारिता करने  का विचार आपको कैसे आया ?

अविनाश : (सोचते हुये)  देखिये भारत के संविधान को बनाते समय संविधान के निर्माताओं ने जिस भारत का सपना देखा था , वो वास्तविक रूप मे व्यवहार मे है नहीं । मेरा मकसद इस समाज मे फैली बुराइयों को खतम करना है । और जैसा की हम मानते हैं की लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ पत्रकारिता है , तो जो चीजे इसे नकारात्मक बना रहीं हैं उन्हे बस  समझने और सुधारने की कोशिश करना चाहता हूँ पत्रकारिता के माध्यम से  ।

सवाल 3: दोनों चीजों के लिए आप समय कैसे निकाल पाते हैं ?

अविनाश : दिक्कत तो बहुत होती है , सुबह जल्दी उठकर विश्व विद्यालय पहुचना होता है , और फिर 2 बजे तक कचहरी मे हाजिरी लगानी पड़ती है । कई बार तो इस  भाग दौड़ मे सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना तक छुट जाता है ।

सवाल 4: आपने अपने अंदर इस क्षेत्र मे आकर क्या बदलाव देखा ?

आविनाश : देखिये आकाश जी  इसके पहले मैंने एल एल बी ऑनर्स किया लेकिन कभी कोई सवाल नहीं उठा पाया । मगर पत्रकारिता के जुनून और मुकुल सर के सहयोग ने मुझे इस समस्या से दूर किया है और ये सबसे बड़ा बदलाव है मेरे अंदर अब तक का ।

सवाल 5: आपको लेकर अक्सर ये शिकायत कि जाती है कि आप अपने ही सवालों मे फँसकर रह जाते हैं जिससे सामने  वाला आपका सवाल ही नहीं समझ पाता है , और शायद आपको जवाब भी सही ढंग से नहीं मिल पाता होगा ?

अविनाश : मैंने भी इस चीज को कई बार महसूस किया है कि मेरे सवालो का मुझे जवाब सही ढंग से नहीं मिल पाता है । कई बार तो मुझे जवाबों से असंतुष्टि होती है । हो सकता है कि सामने वाले तक अपना सवाल सही ढंग से नहीं रख पाता हूँ । लेकिन मैं हर बार यही  कोशिश करता हूँ कि मै अपने सवालों को और बेहतर तरीके से पूछ सकूँ । और इसके लिए मैं किताबों का सहयोग ले  रहा हूँ ।

सवाल 6: कई बार आपके सवाल पुछने पर आपके  क्लासमेट हंसने या प्रॉम्प्ट करने लगते हैं ,  क्या आपको बुरा लगता है ?

अविनाश : ( मुसकुराते हुये ) नहीं बिलकुल नहीं । मैं इन सब चीजों का बुरा नहीं मानता हूँ । लेकिन उनसे मैं यही आशा करता हूँ कि वह मेरा सहयोग किया करें ।

सवाल 7: अगर दोनों प्रोफेशन मे से कोई चुनना हो तो किसे चुनेंगे ?

अविनाश : वकालत मेरा पेशा है ,और  पत्रकारिता भी साथ साथ करता रहूँगा । वैसे दोनों एक साथ करने मे कोई अडचन नहीं आएगी , जहां तक मैं समझता हूँ ।

सवाल 8: आप हमेशा बड़ी जल्दी मे रहते हैं इसका कोई कारण ?

अविनाश : इसका जवाब मैं पहले दे चुका हूँ , जैसा कि आप जानते हैं कि मुझे विश्वविद्यालय के बाद सीधा कचहरी भागना पड़ता है । हो सकता है इसीलिए आपको लगता होगा कि मैं बड़ी जल्दी मे रहता हूँ ।

सवाल 9: खाली समय मे आप  क्या करते हैं  ?

अविनाश : इतनी भाग  दौड़ के बाद  जब खाली समय मिलता है तो मैं मैगजीन पढ़ता हूँ , और मुझे क्रिकेट का बड़ा शौक है तो दोश्तों के साथ खेलने निकल जाता हूँ ।

सवाल 10 : अब तो आपकी वकालत चल गयी है तो फिर शादी का क्या ख्याल है ?

अविनाश :' ( हँसते हुये ) अभी तो बड़े भाई कि शादी होनी बाकी है , उसके बाद देखा जाएगा ।

सवाल 11: तो क्या हम ये समझें कि आपने लड़की देख रखी है ?

अविनाश : अरे नहीं भाई । इसके लिए समय ही नहीं मिल पाता है ।

Saturday 14 February 2015

हमारी राजनीति


राजनिति किसी भी देश की सबसे महत्वपूर्ण और वहाँ की पहचान होती है . ठीक वैसे ही भारत में भी राजनीति अपनी अलग पहचान बनाए हुए है . चूँकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है इसलिए यहाँ लोगो की शिकायते भी बहुत बड़ी हैं . लोकतंत्र की परिभाषा देते हुए  अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने कहा था ‘’लोगों का लोगों पर लोगों के लिए शासन’’. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हमारा मूल अधिकार है . इसलिए मेरी भी कुछ शिकायते हैं अपने देश के राजनीतिज्ञों से जो मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से कर रहा हूँ .
     हम सभी देशवासी अपने देश के राजनीतिज्ञों की वादाखिलाफी की समस्या से आजादी से लेकर आज तक जूझ रहे हैं . हमारे राजनेता और राजनितिक पार्टियां चुनाव के समय लोकलुभावने वादे करते हैं और हमारी समस्या का हल करने का वादा करते हैं और हम उनके लोकलुभावने वादों में फंस कर , अमल कर बैठते हैं लेकिन  जितने के बाद वादों को पूरा करना तो दूर की बात है , दुबारा अपने चुनाव क्षेत्र में झाँकने भी नहीं आते हैं . हमारे देश की राजनिति का इतिहास गवाह रहा है कि राजनेताओं ने जो वादे किये हैं उन्हें आधे अधूरे ही पुरे किये हैं जैसे वर्तमान में उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की अखिलेश यादव की सरकार का ही उदाहरण ले ,उन्होंने चुनाव के समय १०वी पास छात्रों को टैबलेट और १२वी पास की लैपटॉप देने का वादा किया था . लेकीन  सरकार बनाने के बाद १०वी पास छात्र आज भी यही आस लगाए बैठे हैं की उन्हें आज नहीं तो कल टैबलेट मिलेगा मगर सरकार बनने के ३ साल बाद भी ये संभव नहीं हो पाया .कुछ ऐसा ही हाल १२वी पास छात्रों का भी है उन्हें सरकार ने दो साल लैपटॉप तो दिए लेकिन अपनी शर्तों पर जो उन्होंने चुनाव के समय नहीं बताये थे. मुलायम सिंह यादव की महत्वाकांक्षी योजना कन्या विद्या धन का भी हश्र कुछ ऐसा ही है . अल्पसंख्यक समुदाय की प्रगति के नाम पर भी अनदेखी की जाती रही है उनके लिए इस सरकार ने बहुत सी योजनायें चलाई हैं लेकिन इसके अंतर्गत  सिर्फ मुस्लिम अल्पसंख्यकों को ही फायदा मिल रहा है जबकि भारत में अल्पसंख्यक समुदायों में और भी बहुत से वर्ग हैं लेकिन वो इन योजनाओं से वंचित हैं ,सरकार इस पर ध्यान क्यों नहीं दे रही है ?
        सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य भी अखिलेश यादव को प्राप्त है .चुनाव के समय युवावों ने अखिलेश के नाम पर खूब बढ़ चढ़कर उन्हें वोट दिया था लेकिन ३ साल के कार्यकाल में युवा बहुत निराश हुए हैं .रोजगार के अवसर भी बहुत कम मिले हैं जिससे युवावों में रोष व्याप्त है. भर्तियों में पारदर्शिता का भी अभाव देखने को मिला है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण यू. पी. एस. आई. की भर्ती है . ऐसे ही शिक्षकों की भर्ती में भी देखने को मिला है जिसमे सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पडा है .इससे भी सरकार की कार्यशैली पर प्रश्न चिन्ह खड़े होते हैं .
         मेरी शिकायत सिर्फ उत्तर प्रदेश की ही सरकार से नहीं है .इस कतार में केंद्र के साथ साथ अन्य प्रदेशों की सरकारों के साथ साथ तमाम राजनीतिक पार्टीयों से भी है जो अपने ही किये वादों पर अमल नहीं करती हैं तथा अपने आदर्शों अवं सिद्धांतों के विपरीत कार्य करती हैं. मेरी अपील बी]इन सभी दलों एवं राह्नेताओं से है कि जनता से वादे वही करिए जिनको पूरा करने का आप सामर्थ्य रखते हों . अन्यथा अंजाम भुगतने को तैयार रहें . इनके लिए चंद पंक्तियाँ याद आ रही हैं कि –
इन आंधी और तुफानो में कुछ दिये जलाना हमको है ,
जो भटक गए हैं राहों से राहों पर लाना उनको है ,
कुछ रीत नित सिखलानी है हमको इन तानाशाहों को ,

तू साथ हमारा दो मित्रों इतिहास बनाना हमको है .. ..